कल्याण चन्द चतुर्थ

अजीतचंद की मृत्यु के पश्चात इनके 18 दिन के पुत्र राजा कल्याण चन्द चतुर्थ को राज्यधिकारी बनाया गया। इसके समय में 1730-1737 के मध्य कुमाऊ क्षेत्र में रोहिलो बरेली के मुसलमान का आक्रमण हुआ मुसलमानों ने अल्मोड़ा पहुचकर सब मंदिर तोड़ दिए, सोने-चाँदी की मूर्तियाँ, कलश, बर्तन आदि गलाकर सब अपने साथ ले गये। लोग घर छोडकर जंगलो में भाग गये, रोहिलो ने राजसी दफ्तर व कागजात जला दिए।

जिस वजह से कुमाऊ के इतिहास की सामग्री को भारी नुकसान हुआ। रोहिले 7 महीने तक कुमाऊ में रहे। एक संधि हुए जिसमे कुमाऊ छोड़ने के ऐवज में राजा ने रोहिल्लो को 3 लाख रुपिये नगद दिए।

यह धन गढ़वाल नरेश प्रदीपशाह ने उधार दिए थे। राजा प्रदीपशाह अपने साथ राजा कल्याणचंद को लाये और उन्हें कुमाऊ की गद्दी पर विराजित किया। दोनों राजाओं के इस बीच काफी घनिष्ठता बड़ी। जो कुछ बर्बादी मंदिर, महलों तथा किलों की रोहिलों ने की थी कल्यांचंद ने उसकी मरमत करायी।

सन 1745 में रोहिलों ने दोबारा आक्रमण किया, इस बार कुमाऊ की फौज ने अदम शाहस एवं वीरता दिखाते हुए रोहिलों को मार भगाया। इसने अल्मोड़ा में चौमेला महल का निर्माण किया कल्याण चन्द चतुर्थ के समय प्रसिद्ध कवि शिव ने कल्याण चन्द्रोदमय की रचना की अपने अन्त समय में राजा कल्याणचंद को आँखों की बीमारी हो गयी थी, सभी ने इस बीमारी को राजा के लिए कुकर्मो का फल माना। राजा ने मृत्यु से पूर्व अल्पवयस्क कुँवर दीपचंद को राजगद्दी सौंपी और पं. शिव देव जोशी को राज्य का संरक्षक बनाया।

राजा दीपचंद

दीपचंद गद्दी पर बैठते समय बाल्यवस्था में थे, पं. शिवदेवजोशी ने ही सम्पूर्ण राज्यकाज संभाला। इस राजा के समय की सबसे महत्वपूर्ण घटना पानीपत का तीसरा युद्ध है। सन 1761 में मराठों के विरुद्ध लड़ाई में दिल्ली सल्तनत ने कुमाऊ नरेश से मदद मांगी थी। 4000 कुमाउनी सैनिक सेनापति हरिराम एवं उप-सेनापति बीरबल नेगी के आधिपत्य में भेजी गयी।

इस लड़ाई में कुमाऊ सेना और रोहिल्ले एक साथ मिलकर मराठो का सामना किया। कुमाऊ सेना ने गजब का शाहस एवं वीरता दिखाई, सन 1962 में युद्ध खत्म होने पर कुमैया सेना वापिस लौट आई। राजा दीपचंद के समय की दूसरी मत्वपूर्ण घटना गढ़वाल के राजा प्रदीपशाह के साथ युद्ध है। राजा प्रदीपशाह ने मांग रखी कि

  1. दीपचंद उनको चाचा मान कर पत्रों में जयदेव लिखें।
  2. कुमाऊ द्वारा दबाये गये गढ़वाल के सारे क्षेत्र को वापिस करे अन्यथा गढ़वाल के राजा सारे कुमाऊ पर अधिकार कर लेगा।
  3. रामगंगा को गढ़वाल, कुमाऊ की सरहद मानी जाए।

 

राजा दीपचंद ने प्रथम दोनों मांगे मान ली, परन्तु रामगंगा को सरहद मानने से इंकार कर दिया। अपने सलाहकारों की बातों में आकर गढ़वाल राजा ने आक्रमण कर दिया, तामाढ़ोंन के पास युद्ध हुआ। गढ़वालराजा की बहुत बुरी हार हुई, राजा जान बचाकर जैसे तैसे वापिस अपने राज्य की तरफ भागे। पं. शिवदेव जोशी ने भागते हुए राजा का पीछा न कर धर्म एवं बहादुरी का काम किया। इस बात से राजा प्रदीपशाह प्रभावित हुए। फिर दोनों राजाओं के बीच संधि हुई, पगड़ी का आदान प्रदान हुआ। इस तरह आपसी भाईचारा एवं शांति स्थापित हुई। पं. शिवदेव जोशी ने बड़ी कुशलता से राज्य चलाया, जरुरत पड़ने पर दमनकारी नीति भी अपनाई। राजा की भी इनपर कृपा बनी रही। सन 1764 में पं. शिवदेव जोशी का काशीपुर में निधन हो गया। इनके मृत्यु के साथ ही चंद वंश की जड़े उखड़ने लगी।

 

राजा मोहनचंद

मोहन सिंह ने राजा दीपचंद एवं उसके पुत्रों को षड्यंत्र रच मार डाला और स्वयं मोहनचंद के नाम से गद्दी पर बैठ गया। इसी राजा के समय में गढ़वाल के राजा ललितशाह ने कुमाऊ पर आक्रमण कर अपने अधीन कर दिया। राजा प्रदीपशाह के पुत्र राजा ललितशाह को पं. हर्ष देव जोशी ने पत्र भेज, राजा मोहनचंद के खूनी शाशन पर अंकुश लगाने के लिए आमंत्रित किया था। सेनापति प्रेमपति खंडूरी की अगुवाई में राजा ललितशाह की फौज आगे बड़ी और अल्मोड़ा को जीता। मोहनचंद अपनी जान बचाकर लखनऊ के नवाब की शरण में चले गये और फिर वहाँ से रामपुर।

राजा प्रद्युम्नचंद

राजा ललितशाह ने अल्मोड़ा पहुँच, पं. हर्ष जोशी की सलाह पर अपने बेटे प्रद्युम्न शाह को राजा दीपचंद का धर्मपुत्र बना का राजा प्रद्युम्नचंद के नाम से चंदो की राजगद्दी पर बैठाया।  ललितशाह की मलेरिया से पीड़ित हो कर मृत्यु हो गयी, अतः उनके बड़े पुत्र जयकीर्तिशाह गढ़वाल की राजगद्दी पर बैठे। राजा जयकीर्तिशाह ने पत्र भेज राजा प्रद्युम्नचंद को लिखा कि वे यथोचित सम्मान दिखाए एवं पत्र द्वारा भी सम्मान सूचित करें। जिसके जबाव में लिखा गया की कुमाऊ ने कभी गढ़वाल की कभी भी महत्ता स्वीकार नहीं किया है और वह हर तरह से उस गद्दी की मान-प्रतिष्ठा की रक्षा करंगे, जिस पर की वह बैठे है। इस उत्तर को सुनकर गढ़वाल के राजा निरुतर हो गये, पर दिल ही दिल में रूठ गये। इस दौरान गद्दी से भगाए हुए मोहनचंद राज्य वापिस पाने की कोशिस करने लगे।

1400 नागो की फौज लेकर मोहनचंद ने प्रयास भी किया जिसे हर्षदेव जोशी ने विफल किया । सुशिक्षित राजा के फौज के आगे नागा साधू न टिक सके। इस बीच राजा जयकीर्ति शाह ने कुमाऊ पर आक्रमण कर दिया, किन्तु राजा की मृत्यु हो गयी। कुमाऊ फौज ने शिवदेव जोशी के नेतृत्व में खूब लूटपाट मचाई, मदिरो को भी लूटा । राजा जयकीर्ति शाह के मरने पर पराक्रम शाह ने राजा बनना चाहा, परन्तु राज्य के पंचो ने पं. हर्ष देव जोशी के पास सुचना भेजी कि गढ़वाल राज्य का बंदोबस्त राजा प्रद्युम्नचंद की मर्जी के मुताबिक हो। निश्चय हुआ कि गढ़वाल-कुमाऊ का एक ही राजा हो,राजा प्रद्युम्नचंद दोनों राज्यों के राजा बने ये फैसला पराक्रम शाह के अतिरिक्त सभी को पसंद आया।

गढ़वाल के प्रबध हेतु राजा प्रद्युम्नचंद गढ़वाल गये, कुमाऊ का प्रबंध हर्षदेव जोशी के हाथ में रहा । राजा प्रद्युम्नचंद, प्रद्युम्न शाह के नाम से गढ़वाल के राजा बने । 7 वर्ष तक कुमाऊ की राजगद्दी पर बैठ कर प्रद्युम्नचंद राजा मोहनचंद के षड्यंत्र के शिकार हुए, और मजबूरीवश उन्हें कुमाऊ की राजगद्दी छोडनी पड़ी।

राजा मोहनचंद (दूसरी बार)

अनेकों जगह भटक-भटक कर अंततः मोहनचंद दोबारा राजगद्दी पर बैठने में कामयाब रहे। दोबारा गद्दी पर बैठते समय राज्य खजाना पुरी तरह खाली हो गया था। फौज को देने के लिए भी धन नहीं था।  मोहनचंद ने ‘माँगा’ कर लगाया। पं. हर्ष देव जोशी ने फौज जुटाकर मोहनचंद के विरुद्ध युद्ध किया और विजय भी हासिल की । मोहनचंद को कैद में डाल दिया जहाँ उनकी मृत्यु हो गयी । मोहनचंद के मरने के बाद पं. हर्षदेव जोशी फिर से कुमाऊ के सर्वेसर्वा बन गये पर वह अच्छी तरह से जानते थे वह किसी चंद के नाम से खुद तो राज्य कर सकते थे, किन्तु वह स्वयं राजगद्दी पर नहीं बैठ सकते। राजा उद्योत चंद के एक रिश्तेदार कुं. शिवसिंह उन्हें मिले, अतः उन्ही को शिवचंद के नाम से राजा बनाया गया।यह नाम- मात्र के राजा थे।इन्होने बस एक साल राज किया।

राजा महेन्द्रचंद (1788-1790)

पं. हर्षदेव जोशी ज्यादा दिनों तक कुमाऊ का प्रबंधन न सभाल सके।1788 में राजा मोहनचंद के पुत्र महेन्द्रचंद गद्दी पर बैठे । पं. हर्षदेव जोशी गढ़वाल को भाग गये। 1790 में नेपाल के गोरखाओ ने राजा महेन्द्रचंद को हवालबाग में एक साधारण से युद्ध में पराजित कर अल्मोड़ा पर अधिकार कर लिया। गोरखाओ सेनापति अमर सिंह थापा से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। और फिर गोरखाओ ने सम्पूर्ण कुमांऊ पर अधिकार कर लिया। यह चन्द वंश का अन्तिम शासक था। इस प्रकार चंद राजवंश का अंत हो गया। चंद वंश का इतिहास बहुत ही गहन एवं विस्तृत है। उस इतिहास के कुछ एक अंश यहाँ पर लिखे गये है।चंद वंश में हुए विभिन्न राजाओं के राज्यकाल के अनुरूप चंद वंश का इतिहास बताने की कोशिश की गयी है। रोहिलों एवं गोरखाओं के आक्रमण से इस इतिहास से जुडी काफी कड़ियाँ नष्ट जरूर हुई है। यह नोट्स पूर्णतः ‘कुमाऊ का इतिहास – बद्रीदत्त पाण्डे’, एवं अन्य श्रोतों से लिए गए हैं।

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