राजा बालो कल्याणचंद

बालो कल्याणचंद ने सन 1563 में अल्मोड़ा नगर बसाया और यहाँ चंद राजाओं की राजधानी स्थापित की। कहते है अल्मोड़ा घास ले जाने वाली अल्मोडियों से अल्मोड़ा नाम पड़ा । पहले इसे आलमनगर नाम दिया गया, नाम आलमनगर तो चला नहीं, अल्मोड़ा ही चल पड़ा। इसके अलावा इसे राजापुर नाम से भी जाना जाता था। 1563 में लालमंडी किला बनवाया इसे फोर्ट मोयरा भी कहा जाता है। यह पहला चन्द राजा था जिसने गंगोलीहाट पर अधिकार किया था।

रुद्र्चंद

राजा रुद्र्चंद 1565 में गद्दी पर बैठे तब वह बहुत ही छोटे थे। हुस्सैनखां टुकुडिया नामक दिल्ली के एक सूबेदार ने तराई- भावर छेत्र पर कब्ज़ा किया। इसने पर्वतीय छेत्र में भी लूटपाट मचाई (दो बार) मंदिर तोड़े, व लूट मचाई पर इसकी फौज बरसात के मौसम की वजह से पहाड़ों में टिक न पाई। इसकी मृत्यु के बाद चंद शासक रुद्र्चंद ने फौज एकत्रित कर तराई पर फिर से अधिकार किया।

जब इसकी शिकायत दिल्ली पहुची तो दिल्ली से नवाब कटघर बड़ी सेना लेकर चढ़ आये, उस फौज के सामने राजा की फौज कुछ भी न थी। राजा ने यह पेशकश कि की सारी फौज न लड़कर दोनों तरफ से एक-एक योद्धा भेजें जिनमे लड़ाई हो, और जो जीते भावर–तराई का छेत्र उसका। राजा अपनी तरफ से स्वंय गये और विजयी भी रहे। इस तरह का युद्ध इकफा कहा जाता था। रुद्र्चंद की बहादुरी की खबर सुनकर अकबर ने उन्हें लाहौर बुलाया और वहाँ नागौर की लड़ाई में भेजा। उस युद्ध में राजा व कुमाउनी सेना ने बड़ी बहादुरी दिखाई, जिससे प्रसन्न होकर अकबर ने उसे को चौरासी माल का फरमान दिया और खिल्लत भी दी

चौरासी माल तराई- भावर को कहते है, यह 84 कोस का टुकड़ा था।  उसने ने रुद्रपुर नामक शहर बसाया, वहाँ महल व किला भी बनवाया, तराई – भावर में निरंतर उपद्रव होते रहते थे, किन्तु सबसे प्रथम  रुद्र्चंद ने इसका पक्का इन्तेजाम किया। दिल्ली से अल्मोड़ा लौटने पर राजा ने मल्ला महल का निर्माण कराया। इस समय वहां कचहरी व् खजाना है।राजा के दो कुंवर थे, जिनमे से बड़े जन्म से अंधे कुँ. शक्ति सिंह गोसाई थे। दूसरे बेटे कुँ. लक्ष्मीचंद थे। शक्ति सिंह की यह शक्ति थी की अपने सामने आदमी खड़ा करना, फिर उस आदमी के बोलने पर यह जान लेना कि अपने और उस आदमी के बीच कितना अंतर है।

इसी तरह शक्ति सिंह गोसाई ने, कहते है, तमाम जिले की नाप की थी, और बंदोबस्ती शब्द जो कागजातों में आये है जैसे कि, बेलका, नाली, काछ, रत्ती, यासा, पैसा, बीसी, ज्युला सब नाम उन्ही के चलाए है। कहते है की आँखे खुल जाने के लिए गोंसाईजी ने ज्वालामुखी मंदिर में तपस्या की थी पर आँखे तो न खुली, पर जमीन की नाप तथा अन्य राज्य प्रबन्ध का ज्ञान उन्हें काफी हो गया था।

 रुद्र्चंद ने धर्म निर्णय पुस्तक तथा उषा रुद्र गोदया नामक पुस्तकों की रचना की।

राजा लक्ष्मीचंद

मूनाकोट ताम्रलेख में इसे लक्ष्मण चन्द जबकि मानोदय पुस्तक में इसे लक्ष्मी चन्द कहा गया। चंद शासक रुद्र्चंद के बाद लक्ष्मीचंद गद्दी पर बैठे, शक्ति सिंह गुसाईं बड़े होने के नाते राजा के उत्तराधिकारी थे। किन्तु अंधे होने की वजह से शक्ति गुसाईं ने अपने छोटे भाई लक्ष्मीचंद के लिए राज गद्दी छोड़ दी। अंधे होने पर भी शक्ति सिंह गुसाईं को ज्ञान बहुत था विशेषकर नाप का।

अतः लक्ष्मीचंद ने उनको मुल्क व् दरबार का इंतज़ाम करने को कहा। शक्ति गुसाईं ने जमीन की नाप का दफ्तर बनाया। जमीन के ऊपर ‘रकम’ (कर) लगाई। ज्युला, सिरती, बैरक, रक्षया, कूत, भात, वगैरह करों का नाम रखा। यह पहला शासक था जिसने दारमा घाटी के शकों पर अधिकार किया। सिपाहियों को कटक यानी फौज में भर्ती करते समय उनकी परीक्षा लेने का प्रबंध भी किया गया। वीर सैनिक तथा बूढ़े सिपाहियों को जमीने व् जागीर दी गई।

इसने अपने राज्य कर्मचारियों को तीन भागों में बांटा

1- सरदार – परगने का अधिकारी

2- फौजदार – सैन्य अधिकारी

3- नेगी- सहयोगी कर्मचारी

लक्ष्मीचंद ने अल्मोड़ा में महादेव का मंदिर बनाया, महादेव का नाम लक्ष्मीश्वर रखा । उसने बागेश्वर में बागनाथ मन्दिर का निर्माण कराया ।  इसने न्यूवाली व ब्रिस्ताली (सैन्य) अदालतें बनायी न्यूवाली के अन्तर्गत आम लोगों का न्यायिक कार्यवाही ब्रिस्ताली के अन्तर्गत सैनिक न्यायिक कार्य राजा लक्ष्मीचंद ने सात बार गढ़वाल पे चढाई की, और सात बार यह हारे। इस कारण लोगों ने, जिस किले से राजा लड़ते थे उसका नाम ‘स्यालबूंगा’ रखा।

आठवी बार भी बागेश्वर में देवी- देवताओं की पूजा कर गढ़वाल पे आक्रमण किया, राजा की कुछ महत्वपूर्ण विजय तो नहीं हुई, किन्तु इसबार वह लूट-खटोसकर कुछ धन एकत्र किया। इससे खुस होकर राजा अल्मोड़ा लौटे। पंडित रुद्रदत्त पंतजी लिखते है “इस राजा ने गढ़वाल को सर करने की खबर अल्मोड़ा पहुचाने के लिए पहाड़ों की चोटी पर सुखी घास व् लकड़ियाँ के ढेर लगाये कि जिस समय गढ़वाल का प्रदेश जीत लिया जाएगा, उन ढेरों में आग लगाई जाए, ताकि खबर अल्मोड़ा जल्द पहुच सकें”।

जीत के समय ऐसा ही किया गया। तब से अश्विन की सक्रांति के दिन सांयकाल के समय घास का आदमी सा बनाकर उसमे फूल-कांस इत्यादि लगाकर लड़के जलाते है। गाते, नाचते, व् कूदते है – “भैलो जी भैलो , भैलो खतडवा” गैद्दा की जीत, खतड की हर ;गैद्दा पडों श्योल, खतड पड़ा भ्योल। यह उत्सव खतडवा कहलाता है। गैद्दा कुँमौन के राजा के सेनापति थे, खतडसिंह कहा जाता है गढ़वाल के सेनापति थे। वह युद्ध में मारे गये।  रुद्र्चंद व् लक्ष्मीचंद के समय कोई भारी विजय तो नहीं बस कुछ एक सरहदी लडाइयों में विजय प्राप्त हुई। राजा लक्ष्मीचंद जहाँगीर के दरबार में भी गये थे।

राजा बाजबहादुरचंद

बाजबहादुरचंद चन्दवंश का सबसे शक्तिशाली राजा था। 1638 में गद्दी पर बैठे, यह बाजचंद या बाजाचंद के नाम से भी जाने जाते है। उस समय भावर-तराई का इलाका फल-फूल रहा था, वहां सालाना 9 लाख तक की आमदनी हो रही थी। लक्ष्मीचंद और बाजचंद के मध्य राज करने वाले राजाओं का समय घरेलू लड़ाई में ही बीता और वह तराई पर ध्यान न दे सके।

इस वहज तराई पर पर कठेर के हिन्दू मुखिया का कब्ज़ा हो गया था। राजा बाजचंद अपनी शिकायत लेकर बादशाह शाहजहाँ के पास पहुचे ।खूब सारे तोहफे भी ले गये – चंवर गाय, कस्तूरी मृग, चँवर, सोने चाँदी के बर्तन इत्यादि। राजा ने बादशाह को कठेडियों की जुल्म की दास्तान सुनाई। बादशाह ने कहा इस समय लड़ाई है, वो भी युद्ध में शामिल हो जावे और जीत में उन्हें भावर- तराई का छेत्र दिया जाएगा । वहाँ उस समय 1654-55 में गढ़वाल सेना भेजी जा रही थी, ये भी वहाँ भेजे गये । गढ़वाल के युद्ध में राजा ने बहुत बहादुरी दिखाई , इसलिए इन्हें बहादुर की उपाधि दी गयी । राजा को जीत में वादे अनुसार तराई का छेत्र भी मिला।

इसे भूप सिंह की पुत्री तीलू रौतेली ने पराजित किया इसने शकों तथा हुणियो से सीरदी नामक नगद कर वसूलना शुरू किया इसने तिब्बत में आक्रमण किया बाजपुर नामक सहर बाजचंद ने ही बसाया था। इन्होने गढ़वाल बधानगढ़ व लोहबागढ़ दोनों पर चढाई की, और जुनागढ़ का किला भी छीना, वहाँ से नंदादेवी को लाये और मल्लामहल में स्थापित किया । इस राजा का शाशन-काल काफी तेजस्वी रहा।

इन्होने कई परगने फतह किये। राज्य का विस्तार बढाया और कई नये सुधार किये, पर भाग्य की बात, इनका अंतिम काल बहुत बुरा रहा। शाहजहाँ की तरह इनको उन्माद हो गया था, इनके पुत्र कुँवर उद्योत चंद ने भी शाशन की बागडोर सँभालने के लिए बगावत की थी ।

बाज बहादुर चंद  को हरवक्त संदेह रहता था की कब कोई मार डाले, इस भय से की कोई उन्हें मार न डाले। इसलिए उन्होंने अपने सब पुराने नौकर निकाल दिए, राजा की मृत्यु सन 1678 में अल्मोड़ा में हुई।

राजा उद्योत चंद

1678 में गद्दी पर बैठे । उद्योत चंद राजा बाज बहादुर चंद की मृत्यु के पश्चात निर्विरोध व ख़ुशी के साथ राजा बने । लोग भी प्रसन्न हुए की बुढा अन्यायी राजा मर गया है । अपने पिता की तरह यह भी विद्या अनुरागी तथा शिक्षा-प्रेमी थे । इन्होने दूर-दूर देशों के विद्वानों को अपने यहाँ, बुलाया और कुमाऊ में बसने का मौका दिया । बरम मुवानी पिथौरागढ से इसका ताम्रलेख प्राप्त होता है, जिसने नेपाल को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनायी तथा अजमेरगढ़ में अधिकार करने का उल्लेख किया गया है ।

इन्होने तल्ला महल का निर्माण करवाया। यह राजा धर्म-कर्म के बड़े पक्के थे । इन्होने कई मंदिर बनवाये एवं यज्ञ किये। अपना अंतिम समय आते देखकर इन्होने अपने जीवन का अंतिम समय पूजा व प्रार्थना में व्यतीत किया और अपने पुत्र ज्ञानचंद को गद्दी सौंप परलोक सिधार गये।

राजा ज्ञानचंद

ज्ञानचंद को वैसे राजकाज इनके पिता राजा उद्योत चंद ने पहले ही सौंप दिया था। पूर्व के राजाओं द्वारा प्राय: गद्दी पर बैठते ही डोटी (तब का एक स्वतंत्र राज्य) पर चढाई करते थे वैसे ही अब चंद वंश के उत्तराधिकारी ने गढ़वाल पर चढाई करने का नियम सा बना लिया था।

1699 पर गढ़वाल पर आक्रमण कर राजाज्ञानचंद की फौज श्रीनगर गढ़वाल (गढ़वाल की राजधानी) तक पहुच गयी थी। इसने बघानगढ़ी को लूट कर नन्दादेवी की स्वर्ण प्रतिमा अल्मोड़ा में स्थापित की। 10 वर्ष तक राज कर यह स्वर्ग सिधार गये, इनके बाद इनके पुत्र कुं. जगतचंद गद्दी पर बैठे।

राजा जगतचंद

इन्होने भी गद्दी पर बैठते ही पिंडारी व लोहबा के रास्ते गढ़वाल पर चढाई की, गढ़वाल के राजा विवश होकर देहरादून भाग गये। गढ़वाल का राज्य इन्होने एक ब्राह्मण को दान में दे दिया। लूट में प्राप्त धन को इन्होने गरीबों व अपने सिपाहियों में बाँट दिया। कुछ धन नजराने में दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह के पास भी भेजा। इन्होने जुए के ऊपर राज-कर बैठाया।

इतिहासकार एटकिन्सन के मुताबिक राजा ने यह आमदनी भी दिल्ली दरबार भेजी। राजा जगतचंद का स्वभाव बहुत मिलनसार तथा उच्चे दर्जे का बताया जाता है, वह प्रजा प्रिय राजा थे। सबसे प्रेमपूर्वक मिलते थे और राज-काज में खूब दिलचस्पी लेते थे।

चंद वंश का साम्रज्य इनके समय अपने चरम पर था। चारोओर शांति थी, प्रजा सुखी थी। इनके बाद से ही घरेलू झगड़े आरम्भ हुए, राजा की पकड़ पहाड़ व् मैदान दोनों जगह ढीली होने लगी और चंदवंश की अवनति होने लगी। इसके काल को चन्दो के उत्कर्ष काल कहा जाता हैं। तथा कुमाऊ का स्वर्ण काल कहा जाता हैं

इस राजा के समय दो ग्रन्थ बने

1.टीका जगतचन्द्रिका

2.टीका दुर्गा की राजा

देवीचंद –

झीझार ताम्रपत्र चम्पावत में इसे “महाराज कुमार” व “श्रीदेवी सिंह गुसाई जीव” कहा गया है । इसके काल में चाटुकारिता से धन खर्च के कारण इसे कुमाऊ का तुगलक कहा गया।

राजा अजीतचंद

देवीचंद का कोई वारिस न होने के वजह से दरबारियों ने राजा ज्ञानचंद के नाती अजीतचंद को गद्दी पर बैठाया। यह राजा दरबारियों के हाथ की कठपुतली मात्र था। सारा राज काज मानिक गैंडा व पूरन मल गैंडा बिष्ट के हाथ में ही था, इन्होने बहुत अन्याय किये। जिसे कुमाऊ में गैंडागर्दी के नाम से जाना जाता है। राजा अजीतचंद भी इसी गैंडागर्दी के शिकार हुए उन्हें भी मानिक चंद व पूरनचंद ने लात, घूंसों से पीटकर लकवाग्रस्त कर दिया और अंततः राजा अजीतचंद मारे गये।

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