मगध के मौर्य वंशी सम्राट अशोक (273 ई0पू0 232 ई0पू0) ने अपनी चैदह राजाज्ञाओं को इस शिलालेख पर उत्कीर्ण करवाया जिसे जाॅन फाॅरेस्ट द्वारा सन् 1860 में प्रकाश में लाया गया। इस अभिलेख की भाषा प्राकृत तथा लिपि ब्राह्मी है। सम्राट अशोक ने इस राजाज्ञा में नैतिक तथा मानवीय सिद्धान्तों का वर्णन किया है, यथा-जीव हत्या निशेध, जन साधारण के लिए चिकित्सा व्यवस्था, कुयें खुदवाने, वृक्ष लगवाने, धर्म प्रचार करने, माता-पिता तथा गुरू का सम्मान करने, सहनशीलता तथा दयालुता आदि श्रेष्ठ मूल्यों का प्रचार करने का निर्देश दिया है। लेख के अंत में पांच यवन राजाओं का भी वर्णन किया गया है।

लेख मे अशोक ने घोषणा की है कि मैंने राज्य के हर स्थान पर मनुष्यों व पशुओं कि चिकित्सा व्यवस्था कर दी है तथा लोगों से हिंसा त्यागने व अहिंसा को अपनाने कि बात कही गयी है ।

यह शिलालेख देहरादून जनपद मुख्यालय से चकराता राजमार्ग पर लगभग 5० कि० मी० दूर यमुना नदी के तट पर कालसी प्रखण्ड में अवस्थित है तथा भारतीय पुरातत्वसर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित है |

कालसी शिलालेख मे यहाँ के निवासियों के लिए पुलिंद व इस क्षेत्र के लिए अपरान्त कहा गया है । यह लेख यमुना व टोंस नदी के संगम पर है ।

कालसी का प्राचीन नाम सुधनगर व कलकूट था । कलकूट कूणिन्दों कि राजधानी थी ।

कलिंग युद्ध के पश्चात् अशोक ने अपने जीवन में कोई दूसरा युद्ध नहीं किया । उसके ह्रदय में युद्ध के प्रति घृणा उत्पन्न हो गयी थी । कालांतर में वह बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया था । कालसी शिलालेख में उसने हाथी की आकृति उत्कीर्ण करवायी जिसके नीचे ‘गजतमे’ शब्द उत्कीर्ण है । उक्त हाथी को आकाश से उतरता दिखाया गया है जिसे इस रूप में माता के गर्भ में  भगवान बुद्ध के आने का आभास होता है । अशोक के धौली [कलिंग ] शिलालेख में भी हाथी की आकृति उकेरी गयी है जो उसके बौद्ध धर्मानुयायी होने का द्योतक है ।

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