तृतीय कल्प प्रारभ होने से पूर्व (7 करोड़ वर्ष) हिमालय के स्थान पर एक लंबा एवं संकरा जलमग्न क्षेत्र (टेथिस सागर) था ।

जिसे उत्तर में व दक्षिण में क्रमश: अंगारालेंड और गोंडवानालेंड नामक दृढ़ भूखंड थे । इनसे अपरदित होने वाला पदार्थ

सागर में जमा होता रहता था । महान हिमालय के दोनों और दो समांतर भूसन्नतियाँ थी ।

उत्तरी भूसन्नति में पुराजीव कल्प के प्रारम्भ से तृतीय कल्प के प्रारभ तक के अवसादों का निक्षेपण हुआ ।

मध्य कल्प के अंत में सम्पूर्ण विश्व में बड़े पैमाने पर भूसंचलन एवं परत विरूपण हुआ ।

गोंडवाना का विखंडन कार्बोनीफेरस युग में प्रारभ हो गया था । इसके कारण इसमें उत्तरोन्मुख गति के फलस्वरूप

टेथिस में निक्षेपित पदार्थ पर तीव्र दबाव पड़ा, जो कालांतर में वलित होकर (मुड़कर) पर्वत श्रेणियों के रूप में प्रकट हुआ ।

अधिकांश विद्वानों का मत है कि संकुचन उत्पन्न करने वाली शक्ति अंगारालेंड के दक्षिण की ओर खिसकने से उत्पन्न हुई,

किन्तु यह पूर्णतः सत्य प्रतीत नहीं होता है ।

हिमालय की उत्थान की प्रक्रिया कई चरणो में सम्पन्न हुई , इसमें पहला वलन क्रिटेशियस युग के अंत में हुआ ।

उसके पश्चात क्रमशः इओसीन, मायोसीन, प्लयोसीन तथा प्लेईस्टोशियन युगों में भी यह क्रिया हुई ।

फलस्वरूप प्रथम चरण में महान हिमालय तथा द्वितीय में लघु हिमालय का निर्माण हुआ ।

यह उत्थान में प्रयुक्त बल तथा पदार्थ की मात्रा पर निर्भर था । तृतीय चरण में शिवालिक श्रेणियों का उत्थान हुआ ।

चौथे चरण में उक्त तीनों श्रेणियों में पुनरुत्थान हुआ और एक अग्रगर्त का निर्माण हुआ ।

निमार्णकारी सामग्री समाप्त हो चुकी थी । यही गर्त कालांतर में सिंधु गंगा का मैदान बना ।

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