भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने भारत की मिट्टियों का विभाजन 8 प्रकारों में किया है-

जलोढ़ मिट्टी

यह भारत के सर्वाधिक विस्तृत क्षेत्रों पर पायी जाने वाली मिट्टी है, जो देश के कुल क्षेत्रफल के 43.3 प्रतिशत भागों पर

लगभग 15 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में विस्तृत है। इसमें रेत, गाद, मृतिका के भिन्न-भिन्न अनुपात होते हैं।

यह पंजाब से असम तक विस्तृत विशाल मैदानी भाग के साथ-साथ नर्मदा, ताप्ती, महानदी, गोदावरी , कृष्णा और

कावेरी नदियों की घाटियों एवं केरल के तटवर्ती भागों में विस्तृत है।

जलोढ़ मिट्टियों में पोटाश, फॉस्फेरिक अम्ल, चूना व कार्बनिक तत्वों की प्रचुरता होती है। परन्तु इसमें नाइट्रोजन व

हयूमस की कमी पाई जाती है।

यह मिट्टी धान, गेहूँ, गन्ना, दलहन, तिलहन, आदि की खेती के लिए उपयुक्त है।

काली मिट्टी

भारत में काली मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी विस्फोट से निकले लावा के ठण्डा होने के उपरान्त बेसाल्ट चट्टान के

अपक्षय व अपरदन से हुआ है।

इसलिए इसे लावा मिट्टी भी कहा जाता है। अंतर्राष्ट्रीय रूप से इसे उष्ण कटिबंधीय चरनोजम भी कहा जाता है।

इसका रंग काला होता है। यह कपास की खेती हेतु सबसे उपयुक्त मिट्टी है। जिस कारण इसे कपासी मिट्टी भी कहा जाता

है।

इसका रंग काला होता है। यह कपास की खेती हेतु सबसे उपयुक्त मिट्टी है। जिस कारण उसे कपासी मिट्टी भी कहा जाता

है।

यह मिट्टी महाराष्ट्र , गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छतीसगढ़, ओडीशा, आन्ध्र प्रदेश एवं तमिलनाडू में पाई जाती है।

इस मिट्टी में लोहा, चूना, एल्यूमीनियम कैल्सियम व मैग्नीशियम कार्बोनेट प्रचूर मात्रा में होता है।

इस मिट्टी में सभी धारण करने की वृहतम क्षमता होती है। शुष्क कृषि के लिए यह सबसे उपयुक्त मिट्टी मानी जाती है।

इसमें कपास, लोहे, मोटे अनाज, तिलहन, सूर्यमुखी, अंडी, सब्जियां, खट्टे फल की कृषि होती है । इस मिट्टी को रेगुर मिट्टी

से भी जाना जाता है।

लावा मिट्टी

इस मिट्टी का निर्माण जलवायु परिवर्तनों के परिणामस्वरूप रवेदार एवं कायांतरित शैलों के विघटन एवं वियोजन से

होता है।

लौह-ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण इसका रंग लाल होता है। परन्तु जलयोजित रूप में यह पीली दिखाई देती है,

इसलिए इसे लाल और पीली मिट्टी भी कहा जाता है।

यह अम्लीय प्रकार की मिट्टी है जिसमें नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और हयूमस की कमी होती है। इसलिए यह अपेक्षाकृत कम

उपजाऊ मिट्टी है तथा इसमें सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है।

यह मिट्टी मुख्यतः प्रायद्वीपीय क्षेत्र (तमिलनाडू, कर्नाटक, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, तेलगांना, मध्य प्रदेश आदि) में पाई

जाती है।

यह बाजरा, मूँगफली और आलू की खेती के लिए उपयुक्त है जबकि निम्न भूमियों पर इसमें चावल, रागी, तंबाकू और

सब्जियों की खेती की जा सकती है। इस मिट्टी में घुलनशील लवणों की पर्याप्तता होती है।

लैटेराइट मिट्टी :

लैटेराइट प्रकार की मिट्टियों का अध्ययन सर्वप्रथम एफ बुकानन द्वारा 1905  में किया गया था।

यह मिट्टी मुख्यतः प्रायद्वीपीय भारत के पठारों के ऊपरी भागों में विकसित हुई। 200 cm या मुख्यतः वर्षा वाले क्षेत्रों में

चूना व सिलिका के निक्षालन से इसकी उत्पति होती है। लैटेराइट मिट्टियों का स्वरूप ईंट जैसा होता है, भीगने पर ये

कोमल तथा सूखने पर कठोर य कँटीली हो जाती है।

यह सामान्यतः झाड़ व चारागृह का क्षेत्र है, परन्तु उर्वरक के प्रयोग से चावल , रागी , काजू आदि की उपज संभव है।

इनका लाल रंग लौह ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण होती है। इस मिट्टी में लौह-ऑक्साइड व एल्यूमिनियम

ऑक्साइड की प्रचुरता होती है, परन्तु नाइट्रोजन , फॉस्फोरिक अम्ल, पोटाश , चूना और कार्बनिक तत्वों की कमी

मिलती है।

ये मिट्टीयाँ सह्याद्रि , पूर्वी घाट, राजमहल पहाड़ियों, सतपुड़ा, असम तथा मेघालय की पहाड़ियों के शिखरों में मिलती है।

ये निचले स्तर पर और घाटियों में भी पायी जाती है।

पर्वतीय मिट्टी :

इसे वनीय मिट्टी भी कहा जाता है। यह 2.85 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में विस्तृत है। ये मृदाएँ हिमालय की घाटियों में ढलानों

पर 2700 से 3000 मी. की ऊँचाई के भागों में पायी जाती है।

ह्यूमस की अधिकता के कारण यह अम्लीय गुण रखती है। इनकी संरचना एवं गठन गोद-दोमट से लेकर दुमट तक है।

इनका रंग गहरा भूरा होता है। इस मिट्टी में कृषि हेतु उर्वरक डालने की आवश्यकता पड़ती है।

भारी वर्षा वाले क्षेत्रों में हयूमस अधिक होता है। अतः ऐसे क्षेत्रों चाय, कॉफी, मसाले एवं उष्णकटिबंधीय फलों की खेती

संभव है। कर्नाटक , तमिलनाडू , केरल , मणिपुर , जम्मू कश्मीर व हिमाचल प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में यह मिट्टी पायी

जाती है। मिश्रित फल , गेहूँ, मक्का, जौ की खेती के लिए यह मिट्टी उपयुक्त होती है। वनीय मिट्टी में पोटाश, फॉस्फोरस,

चूने का अभाव होता है।

शुष्क व मरूस्थलीय मिट्टी :

शुष्क व अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में अरावली पर्वत और सिन्धुघाटी के मध्यवर्ती क्षेत्रों में विशेषतः पश्चिमी राजस्थान, उतरी

गुजरात, दक्षिणी हरियाणा और पश्चिमी उतर प्रदेश में इसका विस्तार मिलता है।

इस मिट्टी में बालू की मात्रा पायी जाती है। व ज्वार जैसे मोटे अनाजों की खेती के लिए उपयुक्त है। परन्तु राजस्थान के

गंगानगर जिले जहाँ सिचांई की सुविधा उपलब्ध है, इस मिट्टी में गेहूँ व कपास का उत्पादन होता है। इन मिट्टियों में

घुलनशील लवणों एवं फॉस्फोरस की मात्रा काफी अधिक होती है जबकि कार्बनिक तत्वों एवं नाइट्रोजन की कमी होती है।

लवणीय व क्षारीय मिट्टियाँः

यह एक अंतः क्षेत्रीय मिट्टी है, जिसका विस्तार सभी जलवायु प्रदेशों में है। यह मिट्टी राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर

प्रदेश, बिहार , महाराष्ट्र, तमिलनाडू के शुष्क व अर्द्धशुष्क प्रदेशों में 1.70 लाख वर्ग किमी0 क्षेत्र में विस्तृत है।

सोडियम व मैग्नीशियम की प्रचुरता के कारण यह मिट्टी लवणीय तथा कैल्शियम व पौटेशियम की प्रचुरता के कारण

क्षारीय हो गयी है। अतः ये खेती के लिए उपयुक्त नहीं है।

इनका स्थानीय नाम रेह, कल्लर, रकार, ऊसर, कार्ल, चॉपेन आदि है। इन मिट्टियों में चूना या जिप्सम मिलाकर सिंचित

कर तथा चावल तथा गन्ना जैसी लवणरोधी फसलों की खेती कर सुधारा जा सकता है। उस स्थिति में इसमें चावल,

गन्ना, गेंहूँ, तंबाकू की उपज संभव है।

पीट एवं दलदली मिट्टियाँ

इसका निर्माण अत्याधिक आर्द्रता वाली दशाओं में बड़ी मात्रा में कार्बनिक तत्वों के जमाव के कारण होता है। यह

मुख्यतः तटीय प्रदेशों एवं जल-जमाव के क्षेत्रों में पायी जाती है। इसमें घुलनशील लवणों की प्रचुरता गीली मिट्टी प्रायः

धान की खेती के लिए उपयुक्त होती है ।

दलदली मिट्टी का निर्माण जल-जमाव के क्षे़त्रों में वात निक्षेप की स्थिति में मिट्टियों में लौह-तत्व की उपस्थिति व बड़ी

मात्रा में वनस्पतियों के कारण होता है ।