उत्तराखण्ड में भौगोलिक बनावट के आधार पर राजशाही के समय भूमि को सामान्यतः

दो भागों में विभक्त किया गया था। पर्वतीय क्षेत्रों की भूमि को राज अभिलेखों में ‘परवत‘ और तराई – भाबर (मैदान)

की भूमि को अभिलेखों में ‘‘माल‘‘ व ‘‘चौरासी माल ‘‘ के नाम से अभिहित किया गया था ।

इसमें भी शेष भूमि उसके उपयोग के आधार पर विभिन्न वर्गों में विभाजित किया गया था ।

जो इस प्रकार हैं –

गाड़ – यह वह भूमि है, जो छोटी-बड़ी नदियों की घाटियों में होती है । यहां के खेती योग्य बनाया जाता है । यहाँ की खेती योग्य क्षेत्र को ‘गाडु’ , “गड़ू” , “गाड़ा” कहा जाता है ।

लेक – लेक का अर्थ घने जंगलो वाली उस भूमि से है , जिसे समतल करके खेती योग्य बनाया जाता है

इसी तरह के खेतों में बसे कुछ गांवो के नाम कालान्तर में कुछ इस तरह पड़े।

जैसे-मंगल लेख, बनलेख, कसियालेख, ओखल लेख व बिल्लेख आदि।

ईजर – यह वह कृषि भूमि है, जिसे राजा आमतौर पर दान में दिया करते थे।

यह भूमि खेती के लिये बहुत उत्तम नहीं होती थी, उसके बाद भी इसमें खेत बनाकर

हर तीसरे वर्ष फसल बोई जाती थी।

धुरा – डांडा या धुरा डांडा –

इस तरह की भूमि भी राजाओं द्वारा दान में दी जाती थी।

धुरा शब्द ऐसे छोटे जंगलो के लिए प्रयोग में लाया जाता था, जिससे घास, लकड़ी प्राप्त की जाती थी।

डांडा शब्द का अर्थ विभिन्न छोटी-छोटी पहाड़ी चोटियों से है।

यह भूमि समतल न होने से खेती के योग्य नहीं होती, लेकिन इस भूमि का उपयोग घास,

लकड़ी व पशुचारण के लिए किया जाता है।

बगड़ – यह शब्द सामान्यतः खेत के लिए उपयोग होता है, पर बगड़ पहाड़ में नदियों के किनारे की

समतल व उपजाऊ भूमि को कहा जाता है। ऐसी ही खेती वाले कई स्थान आज पहाड़ में है।

जैसे – नारायणबगड़, पातली बगड़, सौड़ बगड़ आदि।

गाड़ को दलो – यह वह भूमि होती है। जो होती तो नदी किनारे और उपजाऊ है,

लेकिन नदी के तल से इतनी ऊँची होती है कि उसमें सिंचाई नहीं की जा सकती है।

कुमाऊँ में ऐसी भूमि को दल, या दौल कहा जाता है।

उत्तराखण्ड में भूमि के प्रकार

बण या वन – ऐसा क्षेत्र जो होती तो वन भूमि है, लेकिन उस पर नियंत्रण गांव वालों का होता है।

पहाड़ो में ऐसे क्षेत्र के जंगल में गांव घास व लकड़ी लाने सामूहिक रूप से जाते हैं।

स्थानीय भाषा में इसे बण जाना या उबढ़ी कहते हैं।

तलौं – पहाड़ की ऐसी खनिज भूमि जो खेती के लिए उत्तम होने के साथ ही सिंचाई सुविधा से युक्त होती है।

इसे तलाऊँ भूमि भी कहते हैं ।

उपरौं – पहाड़ में घाटियों के ऊपरी क्षेत्रों में कंकर-पत्थर वाली ऐसी कृषि भूमि , जिसमें सिंचाई नहीं हो सकती है।

यहां की खेती वर्षा के भरोसे ही होती है।

सेरा – इस शब्द का उपयोग भी सिचिंत तलाऊँ भूमि के लिए ही किया जाता है।

पचार-सिमार – पहाड़ में पचार-सिमार उस भूमि को कहा जाता है, जो नदी- घाटी में स्थित हो और

जहां प्राकृतिक स्रोत से लगातार पानी रिसता रहता हो , एसी भूमि में धान की फसल बहुत अच्छी होती है ।

इस भूमि में साल में एक बार ही फसल बोई जाती है ।