उत्तराखंड मे वानिकी का अत्यधिक महत्व है । यहाँ लगभग 65 प्रतिशत भूमि वन क्षेत्र मे आती है । पहाड़वासियों के रोज़मर्रा के जीवन मे वनो की विशेष उपयोगिता है, क्योंकि इनका पूरा जीवनवृत वनो पर टिका होता है ।

वन प्रबंधन की दिशा मे सर्वप्रथम प्रयास 1826 ई0 मे किए गए। उस समय ट्रेल कुमाऊँ का कमिश्नर था । उसके सुझावों पर एक घोषणा की गयी , जिसके अनुसार सभी थापलों (भाभर के उत्तरी छोर पर स्थित संकरी मैदानी पट्टी) मे साल वनो को काटने पर प्रतिबंध लगा दिया गया । इसके अलावा वन सरंक्षण के लिए कोई और कदम नहीं उठाए गए थे । जिसके कारण जंगलों का कटान जारी रहा । जो सन 1855 से 1861 के बीच चरम सीमा पर पहुँच गया । उस समय रेलवे के स्लीपरों के लिए लकड़ी की बहुत जरूरत थी, जिसके फलस्वरूप लकड़ी के कई ठेकेदार इस अंचल मे पहुच गए । उनको अपनी मनमर्जी के अनुसार जंगलों को काटने की छूट दे दी गयी । इसके फलस्वरूप जंगलों का विनाश ही नहीं हुआ, अपितु आवश्यकता से अधिक पेड़ों का कटान भी हो गया ।

1858 मे हेनरी रेमजे ने पुरानी ठेकेदारी व्यवस्था को बंद कर दिया और इसके प्रबंधन के लिए कार्य करना शुरू कर दिया । हेनरी रेमजे के वनों का प्रबंधन न अच्छे तरीके से किया जिससे राजस्व भी अच्छा प्राप्त हुआ ।

रेलवे के प्रसार के प्रारम्भिक दिनों मे वनों पर भारी दबाव के कारण साल वन क्षेत्र कम हो चुका था । जिससे साल स्लिपरों की आपूर्ति भी कम हो चुकी थी । आयातित लकड़ी महंगी साबित हो रही थी । इस समस्या के निदान के लिए ब्रिटिश सरकार ने सन 1864 मे जर्मन विशेषज्ञों की सहायता से वन विभाग को जन्म दिया । इसमे प्रथम महानिरीक्षक डिट्रिच ब्रेंडिस बनाए गए ।

ब्रेंडिस की सलाह पर  सन् 1865 में वनों से संबंधित भारत का पहला कानून (First Law) भारतीय वन अधिनियम (Indian Forest Act) पास किया गया। इस अधिनियम के बाद वनों की कटाई में कमी आयी ।

1868 तक कुमाऊँ मे भी पृथक वन विभाग बन गया । अब पर्वर्तीय क्षेत्रों को आरक्षित किया जाने लगा ।

सन 1878 मे पिछले अधिनियम की खामियों को दूर करते हुये अखिल भारतीय वन अधिनियम 1878 पारित किया गया । इसमे वनो को आरक्षित व संरक्षित करने का प्रावधान था ।

इसके बाद 1884 में वनों के वैज्ञानिक प्रबंधन के लिए वन विभाग कार्य योजना (Forest Action Plan) लागू किया गया।

1890 ई0 मे चीड़ के पेड़ो से लीसा टिपान शुरू किया गया । जैसे-जैसे परिमार्जन की विधि विकसित होती गयी वेसे-वेंसे इन वनों का महत्व बढ्ने लगा और व्यापारिक वानिकी को और बढ़ावा मिला ।

1910 -1920 के बीच लीसा निकालने के लिए प्रयुक्त पेड़ों की संख्या 26,000 से बढ़कर 21,35,000 हो गई थी । इसी अनुपात मे तारपीन और लीसा का उत्पादन बढ़ा ।

1911 मे वन नीति बनाई गई । जिसके अंतर्गत प्रबंधन संबंधी कुछ नियम बनाए गए जिसमे वन क्षेत्र के अंदर स्थित उन पशु स्थानो, खरकों जहां चीड़ का पुनर्जनम क्षेत्र हो, पशुओं को रखना प्रतिबंधित था। बिना क्षेत्राधिकारी की आज्ञा के नए खरक स्थापित नहीं किए जा सकते थे ।

1916 मे कुमाऊँ परिषद का गठन हुआ और इसने मुख्य स्थानीय समस्या वन कष्ट व कुली बेगार के विरुद्ध आवाज बुलंद की । इस परिषद ने ग्रामीणो को जागृत और संगठित करने का कार्य किया ।

स्वतंत्रता के बाद 1948 में केन्द्रीय वानिकी परिषद (Central Forestry Council) की स्थापना हुई तथा वनों के संरक्षण, विस्तार, रखरखाव लाभों के प्रति लोगो में जागरूकता (Awareness) लाने के लिए 1950 से देश भर में वन महोत्सवों (Forest Festival) के आयोजन शुरु किए गये।

वनों के संरक्षण, विकास एवं प्रशासन को नये सिरे से चलाने के लिए 1952 में नई राष्ट्रीय वन नीति (National Forest Policy) बनायीं गई और कुछ परिवर्तन के साथ 1998 में संशोधित राष्ट्रिय वन नीति (Revised National Forest Policy) बनाईं गई।

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