1980 के दशक तक उत्तराखंड के पहाड़ों में भी हरित क्रान्ति ने जोर पकड़ लिया था. उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में सरकारी व कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने हरित क्रांति की रासायनिक खेती का खूब प्रचार-प्रसार किया. जिससे ग्रामीण लोग अपनी मूल मिश्रित खेती छोड़ सोयाबीन उगाने लग गए . सोयाबीन उगाओ, मालामाल बन जाओ का नारा दिया जा रहा था.
इस बीच विजय जड़धारी के नेतृत्व में इसके विरोध में 1987 को बीज बचाओ आन्दोलन प्रारंभ हुआ. बीज बचाओ आन्दोलन के कार्यकर्ताओंं ने दूर-दूर गाँवों से ढूंढकर परंपरागत बीज इकठ्ठा किये, बीजों से संबंधित जानकारी जुटाई और किसानों को बांटना शुरू किया बीज बचाओ आंदोलन का उद्देश्य सिर्फ बीज बचाना नहीं है बल्कि जैव विविधता, खेती और पशुपालन आधारित जीवन पद्धति और संस्कृति बचाना भी है.
आन्दोलन के शुरुआती दिनों में बीज बचाओ आन्दोलन के कार्यकर्ताओं पर लोग हँसते थे लेकिन आज वही लोग मुस्कुरा कर बीज लेते भी हैं और संरक्षित भी करते हैं.
आज बीज बचाओ आन्दोलन की पहल का ही नतीजा है कि सरकार भी पारंपरिक फसलों को लेकर जागरुक हुई. मंडुवा, झंगोरा एक समय हीन दृष्टि के शिकार हो चुके थे, लोगो के बीच ये फसलें अपनी पहचान खोती जा रही थी , इन फसलों को गरीबों का अनाज कहा जाता था वह आज वही अनाज गेंहू-चावल से दस गुना अधिक दाम पर बाजार में बिक रहा है । यह बीज बचाओ आन्दोलन का ही प्रभाव है कि उत्त्तराखंड आज मंडुए और झंगोरे को अन्तराष्ट्रीय बाजार में निर्यात तक कर रहा है ।
बीज बचाओ आन्दोलन के पास वर्तमान में धान की 80 प्रजातियों के संग्रह के साथ ही 350 प्रजातियों के बारे में जानकारी है । इसी तरह से गेहूं की 10 प्रजातियों का संग्रह व 3२ प्रजातियों की जानकारी है । मढुवे की 12 प्रजातियों की जानकारी है। झंगुरे की 8, रामदाने की 3, राजमा की 220, नारंगी की 9, लोबिया की 8, भट्ट व सोयाबीन की 5 व तील की 4 प्रजातियों के साथ ही सब्जियों के बीजों की सैकड़ों प्रजातियों का संग्रह है.
सबसे अहम बात पारंपरिक बीजों में कम पानी में बेहतर उत्पादन की क्षमता होती है । इस बात की पुष्टि 2009 के सूखे में हो चुकी है । विजय जड़धारी ने बताया कि पहाड़ में पैदा किए जाने वाले धान थापाचीनी, चायना चार, कांगुडी व लठमार तथा गेहूं की मुडरी ऐसे प्रजाति है जो हाईब्रीड के बराबर उत्पादन देती हैं.
सिंचित क्षेत्र की अपेक्षा असिंचित क्षेत्र में फसलों की विविधता अधिक होती है यही कारण है उत्तराखंड में 12 प्रतिशत सिंचित पहाड़ी क्षेत्र में बारहनाजा जैसी मिश्रित खेती देखने को मिलती है जबकि 90% सिंचित मैदानी इलाकों में चावल और गेंहू ही अधिक उगाया जाता है.
अब सरकार द्वारा भी बीज बचाओ आन्दोलन के कार्यकर्ताओं को सराहा गया है । उत्तराखंड की पहली आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट में कृषि के अध्याय में बीज बचाओ आन्दोलन और विजय जड़धारी दोनों का जिक्र है और राज्य में इसी आधार पर परम्परागत कृषि को बढ़ावा दिये जाने को कहा गया है.
आज वैश्विक स्तर पर इस आन्दोलन को न केवल मान्यता प्राप्त है बल्कि विश्व में विकसित देश तक इसका अनुसरण कर रहे हैं.