भारत की आजादी के लिए संघर्षरत की सदस्यता ग्रहण कर एक गुप्त योजना के अंतर्गत वे फौज में भर्ती हो गए ।
1926 से 1945 तक सैनिकों के बीच रहकर राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार करते रहे ।
वे पेशावर कांड के नायक चंद्र सिंह गढ़वाली के मुख्य प्रेरणास्रोत थे ।
सेना से अवकाश के उपरांत हुए मृत्युपर्यंत ( 10 अक्टूबर, 1996 ) तक हिंदी व गढ़वाली साहित्य सृजन में लगे रहे ।
उन्होने हिंदी व गढ़वली में लगभग 20 पुस्तकों की रचना की , जिसमें हिंदी में अमृत वर्षा , मां , प्रेम बंधन , कन्या विक्रय , मेरी वीणा , आर्यों का आदि निवास मध्य हिमालय , तथा गढ़वाली में सिंहनाद , सिंह सतगई , गढ़वाली लोकोक्तियां , वीरबधु देवकी प्रमुख है ।
भजन सिंह ‘सिंह’ लीक से हटकर चलने वाले रचनाकार रहे हैं।
‘सतगई’ में परंपरा 700 दोहों की है, परन्तु उनकी काव्यकृति ‘सिंह सतसई’ में 1259 दोहे शामिल हैं।
अपने एक आत्मनिवेदन में उन्होंने ये पंक्तियां उदृत की हैं
’’लीक-लीक गाड़ी चले, लीकन्हि चले कपूत,
लीक छोड़ि तीनों चले, शायर, ‘सिंह’, सपूत ।’’
भजन सिंह ‘सिंह’ शायर भी थे।
वे उर्दू में अच्छी शायरी करते थे। इसका असर उनकी रचनाओं में भी दिखता है ।
सिंहनाद में ग़जल शैली की उनकी रचनाएं, खासकर मूर्त पत्थर की, काफी चर्चित रही है ।
अंतराष्ट्रीय, अमानवीयता, अवैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रति विद्रोही किंतु संयत तेवरों के कारण ही समालोचकों ने उन्हें “मर्यादित विद्रोह के अथक साधक” कहा ।
अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण “सिंह” “उत्तराखंडी कबीर” कहलाए ।
इनका नाम “अंतराष्ट्रीय बायोग्राफी” पुस्तक में भी अंकित है ।